हर उम्मीद मेरी धुआँ-धुआँ जली है
हर उम्मीद मेरी धुआँ-धुआँ जली है। ना जाने मेरी किस्मत मुझे कहाँ ले चली है। मैं सँभला हूँ हर बार अपने दम पर यूँ गिर-गिर कर, अब तो लगता है मेरी किस्मत के दीये की लौ ही कम जली है। हर बार मेरे सपने कुछ यूँ बिखर जाते हैं। मैं समेटता हूँ किलो से और वो कुन्तलों से गिर जाते हैं। अब थक सा गया हूँ इन ख्वाबों को सहेजते-सहेजते, मैं सजाता हूँ इन्हें कई रंगों से, और ये बड़ी खामोशी से उजड़ जाते हैं। उम्मीद की एक लौ जलती है, और बुझ जाती है। किनारे पर आकर ही मेरी कश्ती, जाने क्यों पलट जाती है। मैं फिर से फँस जाता हूँ किस्मत के इस भँवर में, पिरोता हूँ सपनों को मैं जिस डोर में, वो एक झटके से टूट जाती है। ऐ किस्मत तू खामोश क्यों है, कुछ तो जवाब दे। की है मैंने जो इतनी मेहनत, उसका कुछ तो हिसाब दे। जानता हूँ तेरे भरोसे बैठना बेवकूफी है, लेकिन नींद से खाली मेरी इन रातों का कुछ तो हिसाब दे। निराशा के सागर में डूबा हूँ, और डूबता जा रहा हूँ। खो दिया है मैंने खुद को इस सफर में, और खोता जा रहा हूँ। मैं निकला था मंजिल की तलाश में एक कारवाँ लेकर, कुछ ने मुझे भुला दिया, औ...