हर उम्मीद मेरी धुआँ-धुआँ जली है
हर उम्मीद मेरी धुआँ-धुआँ जली है।
ना जाने मेरी किस्मत मुझे कहाँ ले चली है।
मैं सँभला हूँ हर बार अपने दम पर यूँ गिर-गिर कर,
अब तो लगता है मेरी किस्मत के दीये की लौ ही कम जली है।
हर बार मेरे सपने कुछ यूँ बिखर जाते हैं।
मैं समेटता हूँ किलो से और वो कुन्तलों से गिर जाते हैं।
अब थक सा गया हूँ इन ख्वाबों को सहेजते-सहेजते,
मैं सजाता हूँ इन्हें कई रंगों से, और ये बड़ी खामोशी से उजड़ जाते हैं।
उम्मीद की एक लौ जलती है, और बुझ जाती है।
किनारे पर आकर ही मेरी कश्ती, जाने क्यों पलट जाती है।
मैं फिर से फँस जाता हूँ किस्मत के इस भँवर में,
पिरोता हूँ सपनों को मैं जिस डोर में, वो एक झटके से टूट जाती है।
ऐ किस्मत तू खामोश क्यों है, कुछ तो जवाब दे।
की है मैंने जो इतनी मेहनत, उसका कुछ तो हिसाब दे।
जानता हूँ तेरे भरोसे बैठना बेवकूफी है,
लेकिन नींद से खाली मेरी इन रातों का कुछ तो हिसाब दे।
निराशा के सागर में डूबा हूँ, और डूबता जा रहा हूँ।
खो दिया है मैंने खुद को इस सफर में, और खोता जा रहा हूँ।
मैं निकला था मंजिल की तलाश में एक कारवाँ लेकर,
कुछ ने मुझे भुला दिया, और कुछ को मैं भुला रहा हूँ।
कोशिशें तो मेरी भी कम ना थीं, जो मेरा मुकाम मुझसे यूँ दूर हो गया।
बड़ी शिद्दत से तय किये मैंने ये पथरीले रास्ते, भले ही मैं थक कर चूर हो गया।
लगता है कुछ खामी है तेरे इंसाफ में ऐ खुदा,
जवाब देना था जिन ग़ुरूर वालों को मुझे, उनके सामने मैं खामोश रहने को मजबूर हो गया।
इस खामोश रात में खामोश रहकर जब सोचता हूँ, तो बहुत रोता हूँ।
क्या गलत थे मेरे वो सपने, ये सोचता हूँ तो बहुत रोता हूँ।
क्यों ना मिली मेरी मंजिल मुझे बेपनाह कोशिशों के बाद,
ये कसक जब जागती है, तो बहुत रोता हूँ।
खोकर इन अंधेरों में, मैं हर बार बाहर आया हूँ।
कुछ सधा सधा सा हूँ, तो कुछ डगमगाया हूँ।
उम्मीद का दामन छोड़ने को मैं अभी तैयार नहीं,
मैंने फिर से सँवारा है खुद को, लिए उम्मीद की किरण मैं फिर एक बार आया हूँ।।
Comments
Post a Comment